सीएम साहब! प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे का अभिभावक स्कूल में अभिभावक संघ की बैठक में शामिल होने के लिए अपनी गन्ने की बुवाई को अगले दिन के लिए बढ़ा देता है जबकि उसी गांव का वह अभिभावक जिसका बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ता है वह अभिभावक अपनी गन्ने की बुवाई के लिए अपने बच्चे की परीक्षा छोड़वा देता है। ऐसे में बेसिक शिक्षा आगे बढ़े भी तो कैसे। अन्य बातों के साथ-साथ अभिभावकों की यह सोंच भी बेसिक शिक्षा के आगे बढ़ने में बहुत बड़ा रोडा पैदा कर रही है। आखिर क्या वजह है कि तमाम प्रयासों के बाद भी सूबे की बदहाल बेसिक व्यवस्था पटरी पर नहीं आ पा रही है। खूब अतिरिक्त कक्षा कक्ष बन रहे हैं। गांव-गांव में प्राथमिक स्कूल खोले जा रहे हैं। बच्चों को खाना भी दिया जा रहा है। खाना खाने के लिए थाली और गिलास भी दिए जा रहे हैं। किताबें और बस्ते भी बांटे जा रहे हैं और सबसे बड़ी बात यह कि प्राइवेट स्कूलों से कहीं ज्यादा योग्य शिक्षक बेसिक स्कूलों में नियुक्त हैं। करोड़ों रुपया खर्च होने के बाद भी बेसिक स्कूल निजी स्कूलों से पिछड़ते दिख रहे हैं। ऊपर बैठे अधिकारी जमीनी हकीकत की परवाह किए बिना योजनाएं तो लागू कर देते हैं लेकिन उन योजनाओं के परिणाम नहीं आ पाते। इन स्कूलों में काफी अच्छा पढ़ाई का माहौल तो आज से 20-25 साल पहले तब था, जब इनके लिए नाममात्र का ही बजट होता था। तमाम आईएएस और आईपीएस अधिकारी इन्हीं स्कूलों से निकलते थे। लेकिन एक कहावत है कि मर्ज बढ़ती गई ज्यों-ज्यों दवा की। दरअसल जब मर्ज की पहचान किए बिना ही किसी मरीज को दवा दी जाएगी तो उस मरीज की हालत तो खराब होगी ही। फिर वह दवा चाहे जितनी ही महंगी क्यों न हो। जबकि अगर मर्ज का पता लगाने के बाद मरीज को सस्ती दवा ही क्यों न दी जाए वह भी फायदा करेगी। बीमार बेसिक शिक्षा का इलाज भी कुछ इसी तर्ज पर हो रहा है। जरूरत बाउंड्री की है तो बनवाए, अतिरिक्त कक्षा कक्ष बनवाए जा रहे हैं। जरूरत पहले शिक्षकों का कोटा पूरा करने की है।
शिक्षकों पर न थोंपी जाएं योजनाएं
बेसिक शिक्षा व्यवस्था को
सच-मुच विभाग
हाईटेक बनाना चाहता
है तो उसे
योजनाएं थोपने के बजाय
शिक्षकों से भी सुझाव
लेने चाहिए। तब
अगर योजनाएं बनेंगी
तो वह इन
स्कूलों के लिए ज्यादा
कारगर साबित होंगी।
क्योंकि शिक्षकों के सुझाव जमीनी
हकीकत के काफी
करीब होंगे। उम्मीद
है कि प्रदेश
की सत्ता बदलने
के बाद अब
बेसिक शिक्षा के
उत्थान के लिए
सभी जरुरी कदम
उठाए जाएंगे।
बच्चों को समय
पर नहीं मिलती
किताबें
प्राथमिक विद्यालयों में
बच्चों को समय
पर किताबें नहीं
मिलती हैं। जिससे
बच्चों को किताबों के
अभाव में शिक्षा
ग्रहण करने में
काफी कठिनाई होती
है। बीते वर्ष
बच्चों को किताबें दिसंबर
माह में मिलीं
थीं।
खाना के साथ
पानी भी मिले
स्कूलों में
लगे हैंडपंप सालों
से खराब पड़े
हैं। बार-बार
सूचना देने पर
भी उन्हें ठीक
नहीं किया जा
रहा है। अभी
तक सरकार का
जोर बच्चों को
खाना खिलाने पर
तो रहा है
पर उन्हें खाने
के साथ-साथ
पानी भी मिले,
इससे कोई मतलब
नहीं।
अन्य भार है अध्यापकों पर जरूरत है प्राथमिक विद्यालयों में
पढ़ाई का माहौल
बनाने की, लेकिन
शिक्षकों को लगातार गैर
शैक्षणिक कामों में लगया
जा रहा है।
बच्चा स्कूल आए
या न आए
परीक्षा दे या न
दे पास सबको
करना है।
आकर्षित
करते हैं निजी
स्कूलों के भवन
निजी
स्कूलों के आलीशान भवन
जहां बच्चों और
अभिभावकों को अपनी तरफ
आकर्षित करते हैं वहीं
बेसिक स्कूलों के
भवन आज भी
पुरानी राह पर
ही चलकर लकीर
के फकीर बने
हुए हैं। विभाग
शिक्षा को तो
हाईटेक बनाना चाहता
है पर इन
भवनों को हाईटेक
बनाने की उसके
पास कोई योजना
नहीं है।
अभिभावकों
पर भी कसे
शिकंजा
अभिभावक बच्चे
को स्कूल न
भेजकर उससे गन्ना
छिलवाए, तो उस
पर शिकंजा कसने
की कोई व्यवस्था ही
नहीं है। एक
लेखपाल के बुलाने
पर पूरा गांव
इकट्ठा हो जाता
है लेकिन शिक्षक
के बुलाने पर
पूरे गांव की
कौन कहे एसएमसी
के सदस्य तक
नहीं आते।
बच्चों को नहीं
भाती ड्रेस
प्राथमिक विद्यालयों की
ड्रेस भी बच्चों
को उपहास का
पात्र बना रही
है। खाकी शर्ट
और खाकी पैन्ट।
इतने सारे रंगों
की उपलब्धता के
बावजूद विभाग को
न जाने क्यों
यही रंग रास
आया। शर्ट या
पैन्ट अलग-अलग
रंग की कर
देते तब भी
कुछ ठीक लगता,
लेकिन दोनों को
खाकी कर देने
का निर्णय किसी
को भी रास
नहीं आ रहा
है। न तो
बच्चों को और
न ही उनके
अभिभावकों को।
नहीं बन रही
स्कूलों की बिल्डिंग
कई
दशक पहले बने
स्कूल भवन भी
जर्जर हो चुके
हैं। विभाग ने
ऐसे स्कूलों पर
यह भवन रहने
योग्य नहीं है
लिखवाकर अपने कर्तव्यों की
इतिश्री कर ली है,
लेकिन विभाग के
पास नई बिल्डिंग बनाने
की योजना नहीं
है। बनते भी
हैं तो केवल
अतिरिक्त कक्षा कक्ष। एक
यहां तो एक
वहां। बिलकुल बेतरतीब ढं़ग
से।
बच्चों की उपस्थिति
रहती है कम
स्कूलों में
बच्चों की उपस्थिति भी
ठीक नहीं है।
ज्यादातर बच्चे घरेलू कामों
और खेलने-कूदने
में ही व्यस्त
रहते हैं। अभिभावक योजनाओं के
लालच में बच्चों
का नाम तो
लिखा देते हैं
लेकिन उन्हें नियमित
भेजते नहीं। अध्यापकों के
पास कोई पावर
भी नहीं है
जो वह अभिभावकों पर
बच्चों को नियमित
स्कूल भेजने का
प्रेशर डाल सकें।
ऊपर बैठे अधिकारी बिना
जमीनी हकीकत को
समझे योजनाएं तो
बना देते हैं
पर उन्हें लागू
करना काफी कठिन
होता है।
स्कूलों
में नहीं है
बाउंड्री
सीएम
साहब आज भी
ज्यादातर स्कूलों में बाउंड्री नहीं
है। जिस वजह
से जानवर बेरोकटोक स्कूलों में
घूमते रहते हैं
और लोगों की
भी आवाजाही रहती
है जिससे पढ़ाई
का माहौल नहीं
बन पाता और
बच्चों का ध्यान
भंग होता रहता
है।
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